नमस्कार, आज जो मै बात कहने जा रहा हूँ वो पढकर हो सकता है आप मुझसे सहमत ना हो या हो कुछ भी हो सकता है और आप इस कविता को पुरी ना पढ़े ये भी हो सकता है मगर मेरी आपसे गुजारीस है कि एक बार जरूर पढ़े | समय के साथ साथ हर चीज प्रासंगिक नही रह जाती है ऐसा हमारे धार्मिक किताबों के साथ भी होता है हां ये जरुरी नही है कि ऐसा हर किताब के साथ हो मगर कुछ किताबों के साथ ऐसा जरूर होता है उसी तरह की एक किताब है , मनुस्मृति | हमारे भारत देश के महान संविधान की मूल भावना सभी देशवासीयो की संविधान के समक्ष समानता और स्वतंत्रता है और हमारे देश का संविधान हम सभी देशवासीयो के लिए वरदान स्वरुप है | मगर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जातिवाद, छुआ छुत और कहीं न कही मनुवाद भी हमारे देश के लोकतंत्र की सफलता और संविधान की सफलता में भी बाधक तत्व हैं |
मैं मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम की बात कर रहा हूं
समाज में खाई तुम्हारी ही बनाई हुई है
इसमें गिर भी तुम्हेी रहे हो
रिश्तो में ये आग भी तुम्हारी ही लगाई हुई है
इसमें जल भी तुम्हीं रहे हो
अपनों के बीच यह दीवार भी तुम्हारी ही बनाई हुई है
सिर भी इस पर तुम्हें पटक रहे हो
क्या रामायण नहीं पढा तुमने ?
क्यों श्रीराम को भुला दिया तुमने ?
क्यों गीता नहीं पढी तुमने ?
भगवान श्री कृष्ण के उपदेशों को ठीक से सुना नहीं तुमने
एक ने शबरी के जूठे बैर खाए
तो दूसरे ने ग्वालों संग माखन खायी
तुम तो उनके हाथ का पानी तक नहीं पीते
जिन्होंने तुम्हें रामायण बताई
स्नातन है वसुधैव कुटुंबकम मानने वाला
तुम किस किताब की बात मान रहे हो
कौन मनु ?, किसकी स्मृति ?
मैं मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम की बात कर रहा हूं
तुम किसकी बात कर रहे हो ?
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इस कविता को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |
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