सोमवार, 9 सितंबर 2019

हास्य व्यंग कविता, दीवारों के कान नही होते

     नमस्कार, आपके लिए प्रस्तुत है मेरी तकरीबन दो महीने पहले लिखी एक हास्य व्यंग कविता जिसका शीर्षक है

दीवारों के कान नहीं होते

सब कहते हैं
दीवारों के भी कान होते हैं
फिर दीवारों के नाम क्यों नहीं होते
दीवारों के मुंह क्यों नहीं होते
आंखें क्यों नहीं होती
हाथ पाऊं क्यों नहीं होते
सिर्फ कान ही क्यों होते हैं
और कहां होते हैं
और किसने देखें हैं दीवारों के कान
मैंने तो कभी नहीं देखा
कहीं भी नहीं देखा
गांव में भी नही देखा
शहर में भी नही देखा
रात में भी नही देखा
दोपहर में भी नही देखा
तो मैं कैसे मान लूं कि
दीवारों के भी कान होते हैं
सबके कहने से

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