शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

ग़ज़ल, हमको तो ये हमारी वो मंजिल नही लगती

     नमस्कार, आज मै आपके सामने मेरी सात गजलों की सीरीज लेकर आया हूं जिन्हें मैने पिछले महीने में लिखा है उन्हीं गजलों में से छठी गजल यू है के

ये मेरी मोहब्बत का हासिल नहीं लगती
जिन आंखों में भूख चमकती है वो मुझे कातिल नहीं लगती

मेरी मर्जी भी शामिल थी तेरी सरकार बनाने में
मगर तेरी योजनाएं मेरे बेहतरी के काबिल नहीं लगती

ये जो तू बांट रहा है खुशियां सबको गिन-गिन कर
मेरी खुशियां शायद तेरी झोली में शामिल नहीं लगती

जिसे देखिए गमगीन बैठा है अपना अपना शेर लेकर
मुझे तो ये शगुफ्ता लोगों की महफ़िल नही लगती

जहां तक पहुंचाने का ख्वाब दिखाया था तनहा तुमने
हमको तो ये हमारी वो मंजिल नही लगती

       मेरी ये गजल अगर अपको पसंद आई है तो आप मेरे ब्लॉग को फॉलो करें और अब आप अपनी राय बीना अपना जीमेल या जीप्लप अकाउंट उपयोग किए भी बेनामी के रूप में कमेंट्र कर सकते हैं | आप मेरे ब्लॉग को ईमेल के द्वारा भी फॉलो कर सकते हैं |

      इस गजल को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Trending Posts