शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

ग़ज़ल, थोड़ा बहोत दिल बहलता है

    नमस्कार, आज मै आपके सामने मेरी सात गजलों की सीरीज लेकर आया हूं जिन्हें मैने पिछले महीने में लिखा है उन्हीं गजलों में से सातवी गजल यू है के

सियासत का हर सिकंदर यही कहकर छलता है
आवाम के वोट के ख़ातिर यहाँ सब चलता है

मेरे माथे का पसीना और हाथ के छाले सबूत हैं
पहले मैं मेरा खून जलाता हूं तब मेरे घर में चुल्हा जलता है

कभी यार कभी प्यार कभी दिलदार कभी तकरार
खेल दिखा रहा है जादू का देखो ना वो कितने रुप बदलता है

हकिकत किताबों मे दफन है नयी नस्लों को बुक रटाई जा रही हैं
आज भी ये अकीदा है कि आबताब को कोई शैतान निगलता है

उतना तो अमीर अपने घरों में पानी तक इस्तेमाल नही करते जनाब
जितना उनकी गाडी से कुचलकर किसी गरीब का खून निकलता है

पुरानी निकाह तो गले की फांसी लगने लगती है अक्सर
और नयी मोहब्बत में दिल थोडा ज्यादा ही मचलता है

तेरे रहनुमाों तक ने तुझे खैरात देने से इनकार कर दिया
ये बता अब तू किसके दम पर इतना उछलता है

उन लोगों को रोको मत मोहब्बत की बात करने दो तनहा
और ज्यादा कुछ नही इससे थोड़ा बहुत दिल बहलता है

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