शनिवार, 16 जून 2018

ग़ज़ल, वो है के मेरा मयार बदलने नहीं देता

   नमस्कार , गजलें हमेसा से कुछ ऐसी भी बातें आपको दुनिया के लोगों के बारे में बताती हैं जो हमें आमतौर पर मालुम नही होती है और वो भी इशारों में | हर गजल का आपना एक मिजाज होता है और यही इस विधा की खासियत है |

    3 जून 2018 को मैने एक गजल लिखी थी जिसे मैं आपके साथ साझा कर रहा हूं | गजल का मतला और कुछ शेर देखें के -

मेरा हालात मेरे अशार बदलने नहीं देता
वो है के मेरा मयार बदलने नहीं देता

बारहा साधता है निशाने मुझ पर ही
मेरा महबूब है कि अपना शिकार बदलने नहीं देता

बहुत पहले ही मुक्तसर हो जाती मेरे हयात की कहानी लेकिन
वो है कि मेरा किरदार बदलने नहीं देता

कभी-कभी सोचता हूं मैं कि ये मुल्क की तरक्की का दौर है
मेरा निजाम है कि मेरे विचार बदलने नहीं देता

इतने सितम सहकर तो पत्थर भी उफ कह देता
मेरा दिल है कि दिलदार बदलने नहीं देता

डॉक्टर महबूब का जलवा ए हुस्न तो देखिए
बीमारी ठीक है लेकिन बीमार बदलने नहीं देता

'तन्हा' के नहीं अब किसी और के हो गए हैं वो
मगर इश्क है कि आशिकी का इख्तियार बदलने नहीं देता

    मेरी ये गजल आपको कैसी लगी मुझे अपने कमेंट्स के जरिए जरूर बताइएगा | अगर अपने विचार को बयां करते वक्त मुझसे शब्दों में कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मैं तहे दिल से माफी चाहूंगा | मैं जल्द ही वापस आऊंगा एक नए विचार नयी रचनाओं के साथ | तब तक अपना ख्याल रखें, अपनों का ख्याल रखें ,नमस्कार | 

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