रविवार, 21 जुलाई 2019

मुक्तक, चार चार लाइनों में बातें करूंगा आपसे 8

नमस्कार, बीते एक दो महीनो के दरमिया में मैने कुछ मुक्तक लिखे हैं जिन्हें आज मै आपके दयार में रख रहा हूं अब यहां से आपकी जिम्मेदारी है कि आप मेरे इन मुक्तकों के साथ न्याय करें

वो जमीन दरगाह हो जाती है जहां किसी नवाजी का सर लगता है
वो धरा किसी तीर्थ से कम नही जहां प्रसाद वितरण का लंगर लगता है
न मंदिर तोड़ो न मसजिद तोड़ो न चर्च न गुरुद्वारा
अब मुझे जलता हुआ हिन्दुस्तान देखकर डर लगता है

जमुरियत को लगा है आजार कहेंगे
आस्तीन के सांपों को मक्कार कहेंगे
हमारी हिम्मतअबजाई करो जमुरियत वालों
हम मुल्क के गद्दारों को गद्दार कहेंगे

हीज्र कि रात गुजरती है सहर छोड़ जाती है
नदी कि बाढ उतरती है लहर छोड़ जाती है
मेरा जिस्म जिस कदर आग का दरिया बना है
बुखार उतर भी जाए तो असर छोड़ जाती है

नही चाहिए था मोहब्बत का इस कदर नुमायाँ होना
अपने ही जिस्म है और किसी और का साया होना
मोहब्बत चुनने की आजादी सब को होनी चाहिए ये हक है
मगर अच्छा नही है बेटियों का इस कदर पराया होना

हेराफेरी का हिसाब जायज़ नही है
बेअदबी से दिया जबाब जायज़ नही है
इंसाफ करने के लिए अदालते हैं , मुंसिफ हैं
यू भीड़ का इंसाफ जायज़ नही है

खुदा जिन्दा रहे ना रहे भगवान जिन्दा रहे ना रहे इंसान जिन्दा रहना चाहिए
सरकार कोई भी आए निजाम कोई हो हालात कैसे भी हो दिल में हिन्दुस्तान जिन्दा रहना चाहिए
जंगवाजों जंगवाजी यू भी दिखाई जाती है
हार हो या जीत हो दुश्मन शर्मिंदा रहना चाहिए

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