नमस्कार , ये जो कविता है इसके बारे में मै बस इतना कहना चाहूंगा के ये कविता नही अविधा है | ये कविता मैने करिबदन 22 नवम्बर 2016 को साम के वक्त लिखा था | मुझे आशा है कि मेरी यह कविता आप को पसंद आयेगी |
यह खिड़की बंद ही नहीं होती
मेरे सिरहाने एक खिड़की है
जिसमें पर्दे भी नहीं है
एक तो जाड़े का मौसम है
सुबह शाम ठंडी ठंडी हवा आती है
सहर होते ही कहीं से टुकटुक की आवाज आती है
और मेरी नींद भी पूरी नहीं होती
बस ओठकाकर सोता हूं इसे
बहुत कोशिश की मगर
यह खिड़की बंद ही नहीं होती
जिसमें पर्दे भी नहीं है
एक तो जाड़े का मौसम है
सुबह शाम ठंडी ठंडी हवा आती है
सहर होते ही कहीं से टुकटुक की आवाज आती है
और मेरी नींद भी पूरी नहीं होती
बस ओठकाकर सोता हूं इसे
बहुत कोशिश की मगर
यह खिड़की बंद ही नहीं होती
रोज एक खुशबू आती है कहीं से
मेरे बिन चाहे कमरे मे फैल जाती है
पक्षियों का चहचहाना ,मंदिर के घंटों की आवाज
बस यूं ही सुनाई देती रहती है
खिड़की के उस पार वाले रास्ते से
रोज एक चेहरा गुजरता है
जिसे देखने के खातिर मेरा दिल मचलता है
यह ख्वाहिशें मुझे मेरे लक्ष्य से भटका जाती है
बहुत कोशिश की मगर
यह खिड़की बंद ही नहीं होती
मेरे बिन चाहे कमरे मे फैल जाती है
पक्षियों का चहचहाना ,मंदिर के घंटों की आवाज
बस यूं ही सुनाई देती रहती है
खिड़की के उस पार वाले रास्ते से
रोज एक चेहरा गुजरता है
जिसे देखने के खातिर मेरा दिल मचलता है
यह ख्वाहिशें मुझे मेरे लक्ष्य से भटका जाती है
बहुत कोशिश की मगर
यह खिड़की बंद ही नहीं होती
मेरी गजल के रूप में एक और छोटी सी यह कोशिस आपको कैसी लगी है मुझे अपने कमेंट के जरिए जरुर बताइएगा | अगर अपनी रचना को प्रदर्शित करने में मुझसे शब्दों में कोई त्रुटि हो गई हो तो तहे दिल से माफी चाहूंगा | एक नई रचना के साथ मैं जल्द ही आपसे रूबरू होऊंगा | तब तक के लिए अपना ख्याल रखें अपने चाहने वालों का ख्याल रखें | मेरी इस रचना को पढ़ने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया | नमस्कार |
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