नमस्कार, पिछले एक महीने के दरमिया में लिखे गए अपने कुछ मुक्तक आपकी महफिल में रख रहा हूँ मुझे उम्मीद है कि आपको मेरे यह मुक्तक अच्छे लगेंगे
अब के तैयार हो के आया हूं नुमाइश में तेरी
देखना हैं कितनी आग है ख्वाइश में तेरी
देखना कोई आसान सा इंतहान न ले ले ना
मैं तो जान भी देने आया हूं आज़माइश में तेरी
तिरयात हर जहर का नही होता
एक मुसाफिर हर सफर का नही होता
कश्मीर हिंदुस्तान का हिस्सा ही नहीं मस्तक है
जीते जी धड कभी सर से अलग नही होता
ये खुदा की लाठी का असर लगता है
तुम्हार फैलाया हुआ ही जहर लगता है
ये जो उड़ी है तुम्हारे चेहरे की हवाईया
ये तो मेरी शख्सियत का असर लगता है
आ अब आशुओ से कहें अब ये बहेंगे नही
वो तो गैर हैं तुझसे सच्ची बात कहेंगे नही
आज हम दोनों तो लड़ते रहेंगे सरहदों के लिए
कल ये सरहदें रहेंगी हम दोनों तो रहेंगे नही
उसका यही बचकाना रवैया तो हैरान कर रहा है
जिसे जंग से बचना चाहिए वही ऐलान कर रहा है
खुद उसके घर में पीने के लिए पानी नही है
हमे समंदर दिखा दिखा के परेशान कर रहा है
इस तरह से कहा कोई कहानी मुकम्मल होती है
दो जिस्म मिलाकर एक जवानी मुकम्मल होती है
जब जरा जरा सी लहरे ज्यादा लहराती हैं
दो नदियों के संगम से एक रवानी मुकम्मल होती है
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इन मुक्तक को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |
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