शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

तीन कविताएं भाग 2

हम उस नदी को 


हम उस नदी को 

नही जानते 

कहां से आती है 

कहां को जाएगी 

कब तक बहती जाएगी 

कब वो रुक जाएगी 

कब वो भी थक जाएगी 

और कह देगी 

अब और नहीं 

मैं अपने सिने पर 

तुम्हारी गंदगी लेकर चलूंगी 

अब मैं ये और 

बर्दाश्त नहीं करुंगी


पेड़ वो उखड़ गया 


पेड़ वो उखड़ गया 

कल रात की आंधी में 

कुछ लोग अब वहां 

बहुत खुश हैं 

कहते हैं 

जगह खाली हूआ 

रास्ता बनेगा 

फिर शापिंग मॉल बनेगा 

बड़ा मैरिज हॉल बनेगा 

पर सुबह से ही 

न ज़ोन क्यों 

कुछ चिड़िया 

कुछ कौंवे 

कुछ कबुतर 

अनवरत कलरव कर रहें हैं


शहरी जंगली आदमी


एक शहरी आदमी 

जंगल में घुमाते हुए 

एक कम कपड़े पहने 

कुछ पत्तों के गहने पहने 

हूए एक आदमी को देख 

सोचने लगा 

यही वो लोग हैं 

जिन्हें जंगली कहते हैं 

जो कुछ भी खाते हैं 

कुछ भी गाते हैं 

कैसे-कैसे नाचते हैं 

असभ्यत हैं 

और वो आदमी 

बड़े गौर से 

देखने लगा 

इस शहरी जंगली 

आदमी को अमरुद 

खाते हूए

बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

तीन कविताएं

 बड़ी ख़ामोशी से 


हर दिन एक 

अंजान सी 

ख़ामोशी 

मेरा पिछा करती है 

कहती है 

बोलो 

वो जो कोई नहीं बोलता 

और मैं ख़ामोशी को 

बड़ी ख़ामोशी से 

जबाब देता हूं


दिन छोटे होने लगे हैं 


अब दिन छोटे होने लगे हैं 

शायद सूरज भी 

अपनी रोशनी 

बचा रहा 

उन लोगों से 

जो अब 

सड़कें, पुल, कोयला, तालाब 

और भी न जाने क्या-क्या 

चुराने लगे हैं


यहां रिवाज़ है 


यहां रिवाज़ है 

शायद आपको भी 

अब भी 

अब तक भी 

पता ना हो 

पर 

झूठ बोलना 

परंपरागत 

दायित्व है 

यही तो 

विरासत मे मिला है 

मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल , इस बुढ़ापे मे बचपना ये नादानी बहुत है



इस बुढ़ापे मे बचपना ये नादानी बहुत है 

गर्व से सुनाने के लिए एक कहानी बहुत है 


मेरे गांव की एक सदानीरा नदी सुख गई 

सुना है पड़ोस वाले शहर के बांध मे पानी बहुत है 


सात जन्मों का वरदान क्यों मांगू मैं भला 

ढंग से जीने के लिए एक ज़वानी बहुत है 


एक ईनामी चोर का लौंडा अब विधायक है 

आप ये तो मानेंगे आदमी खानदानी बहुत है 


बड़े साहब बहुत बड़े सिद्धांतवादी और वफादार हैं 

घूस कि बात मत करो थोड़ा सा चाय पानी बहुत है 


चार पीढ़ियों से यही सोने कि चूड़ियां चल रही हैं 

नई बहू कहती है ये कीमती तो है मगर पुरानी बहुत है


शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

ग़ज़ल, हाकिम रियाया के दिल की बात कब जानता है

मेरी एक नयी ग़ज़ल देखिए 

हाकिम रियाया के दिल की बात कब जानता है 

जब शहरों में बगावत उठती है तब जानता है 


वो अजनबी होता मेरे गमों से तो राहत होती 

मगर यही गम है के वो सब जानता है 


दुसरे को भीगता देखकर बहुत खुश होता था वो 

जब गई है सिर से छत तो अब जानता है 


पिछले महीने तेरे शहर में ज़लज़ला आया था 

उसके कहने का मतलब जानता है 


ये सवाल मेरी शख्सियत पर हावी है 

वो मुझसे क्यों पूछता है जब जानता है 


मेरी तरफ़ से मुहब्बत में कोई कमी नही रही 

ये बात मेरा राम मेरा रब जानता है


यदि ग़ज़ल अच्छी लगे तो अपने विचार मुझसे अवश्य साझा करें, नमस्कार। 

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

कविता, कुंभ निरंतर चलता रहता है

 नमस्कार, मैं अपनी इस नई कविता के विषय मे कोई भुमिका नही बनाना चाहता क्योंकि मैं समझता हूं कि यह कविता किसी भी भुमिका से परे है इसलिए मै सिधे कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं। 

Mahakumbh 2025


कुंभ निरंतर चलता रहता है 


देह रुपी पुण्य धरा पर 

मन, चित्त और आत्मा की त्रिवेणी में 

श्रद्धालु रुपी कई विचार 

निरंतर आते जाते रहते हैं 

भाव सदृश पावन डुबकी 

निरंतर ही लगाते रहते हैं 

जीवन रुपी यह अमर दीया 

ऐसे ही चिरंतन जलता रहता है 

कुंभ निरंतर चलता रहता है


भौतिक जगत का यह महाकुंभ जो आया है 

कई जन्मों के पुण्य कर्मों का 

प्रसाद हमने पाया है 

आस्था है राह मोक्ष की 

गंगाजल तो एक सहारा है 

ब्रह्म सत्य है सत्य ब्रह्म है 

बस तर्क बदलता रहता है 

कुंभ निरंतर चलता रहता है


कविता के विषय मे अपने विचार अवश्य प्रकट करिएगा, नमस्कार। 

शनिवार, 25 जनवरी 2025

कविता, गणतंत्र के साढ़े सात दशक

 नमस्कार, गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर हमारे महान गणतांत्रिक देश भारत को समर्पित मैं ने एक नयी कविता लिखने का प्रयास किया है जिसे मैं आपके साथ साझा कर रहा हूं मुझे आशा है कविता आपको पसंद आएगी। 


गणतंत्र के साढ़े सात दशक 


पहला दशक अभिमान का था 

मां भारती के गौरव गान का था 


दुसरा दशक आत्मसम्मान का था 

भारत माता की स्वाभिमान का था 


तिसरा दशक भारत के पहचान का था 

और गणतंत्र पर संकट समाधान का था 


चौथा दशक कई प्रावधान विधान का था 

गणतंत्र जनित समस्या और निदान का था 


पांचवां दशक नए बदलाव का था 

विश्व से फिर नए लगाव का था 


छठवां दशक धन के बहाव एवं ठहराव का था 

भारत कि चेतना पर फिर लगे घाव का था 


सातवां दशक जन जागृति एवं विश्वास का था 

सामान्य मानव जीवन में आ रहे नए प्रकाश का था 


वर्तमान में चल रहा दशक प्राचीन गौरव के भान का है 

और भविष्य के स्वर्णिम भारत के आहवान का है

सोमवार, 11 नवंबर 2024

ग़ज़ल, दिल हमारा गुनहगार नहीं है

 दिल हमारा गुनहगार नही है 

ऐसा कोई पहली बार नही है 


हर बार यही सोचता हूं आखरी है 

मगर ये भी आखरी बार नही है


तुझे रास्ता बदलना है तो ऐलानिया बदल 

हमें भी कोई तेरा ही इंतजार नही है 


सांचे में ढालकर कांसे को सोना बना दूं 

ये मेरी कहानी है मगर मेरा किरदार नही है 


तनहा आसान नहीं है जुर्म कबूल कर लेना 

मुझे बेगुनाह समझे ऐसी सरकार नही है

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

मुक्तक, हम जय श्री राम कहेंगे

हम भारत की शान को भारत कि शान कहेंगे।  

हम अपने भगवान को तो, भगवान कहेंगे। 

अयोध्या ही नहीं पुरा देश स्वागत कर रहा है। 

हम अपने प्रभु श्री राम को सादर जय श्री राम कहेंगे।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

ग़ज़ल, शायर का मिजाज तो अंगारा होना चाहिए था

एक नई ग़ज़ल आपके सामने रख रहा हूं। 


शायर का मिजाज तो अंगारा होना चाहिए था 

और उसकी शायरी को तो शरारा होना चाहिए था 


ये जो लड़की अदाएं दिखा रही है सिर पर ईंटें उठाएं हुए 

असल मे इस लड़की को तो अदाकारा होना चाहिए था 


जिस कली को फूल बनने के पहले ही तोड़ा गया हो 

ऐ मेरे परमात्मा उसका जन्म तो दोबारा होना चाहिए था 


अपनी गरीबी का मजाक बना रही है उड़ने का सपना देखकर 

इस लड़की की किस्मत में तो एक सितारा होना चाहिए था 


अब मेरे एहसास किसी समंदर कि तरह हो गए हैं 

मगर इसमें तो एक किनारा होना चाहिए था 


जब बहुत जरुरत थी छांव कि तभी वह पेड़ उखड़ गया 

बुढ़ापे में तो बच्चों को मां-बाप का सहारा होना चाहिए था


मैं जानता हूं तुम क्या सोच रहे हो साकी 

ये सारा मयखाना तो तुम्हारा होना चाहिए था 


हमने कई वर्षों तक तनहा रातें गुजारी हैं 

नुर-ए-मुहब्बत पर पहला हक तो हमारा होना चाहिए था


ग़ज़ल कैसी रही मुझे कमेंट करके अवश्य बताएं, नमस्कार। 

बुधवार, 24 जुलाई 2024

पुस्तक प्रकाशित, देह मन्दिर को बनाकर

नमस्कार, हर लेखक या कवि का यह सपना होता है कि एक दिन उसकी किताब प्रकाशित होगी और अब वह मेरा सपना सच हो गया है। 

मेरा पहला कविता संग्रह अब उपलब्ध है Amazon और Flipkart पर, लिंक निचे दिया गया है।

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मंगलवार, 23 जुलाई 2024

कविता, भारत अखंड है, अखंड ही रहेगा |

नमस्कार, मेरी एक नयी कविता आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं |


भारत अखंड है, अखंड ही रहेगा 


विविध रंगों से भरा है यह देश हमारा 

हिमालय से कन्याकुमारी तक फैला है उजियारा 

पूरब पश्चिम,उत्तर दक्षिण,सब है एक ही धारा

सम्पूर्ण भारत है प्राण हमारा 


भाषा,धर्म,रीति-रिवाज, भिन्न भिन्न हो सकते हैं

पर दिलों में प्रेम देश का सदा एक ही रखते हैं 

एक सूत्र में बंधे हैं हम भारत माता की संतानें 

भारत माता की शक्ति से खड़े हैं हम हर मुश्किल में सीना ताने 


नफ़रत और बंटवारे की कोशिशें होंगी नाकाम सदा 

एक भारत की भावना रहेगी सदैव ही अटल यहां 

आओ मिलकर हम सब इस महान देश का गुणगान करें 

भारतवर्ष की होगी जय-जयकार सदा सारे जग में ये ऐलान करें


कविता कैसी लगी मुझे कमेंट करके अवश्य बताएं, नमस्कार | 

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

ग़ज़ल, अपनी नजरों से आज़ाद कर मुझे

आज फिर एक बार हाजिर हूं अपनी एक नई ग़ज़ल के साथ|


अपनी नजरों से आज़ाद कर मुझे 

अब ना और बर्बाद कर मुझे 


तू मशहूर है दुनिया बनाने के लिए 

तो फिर अब आबाद कर मुझे 


मैं ताराज हूं तेरे ख्यालों में 

आ फिर से नाराज़ कर मुझे 


आजकल दिल मेरा बहुत खुशमिजाज है 

तुझसे इल्तज़ा है नासाज कर मुझे 


मैं ने एकतरफा निभाई है रश्म मोहब्बत कि 

अब तनहा इस रिश्ते से आज़ाद कर मुझे


अगर ग़ज़ल आपको अच्छी लगे तो मुझे कमेंट करके अवश्य बताएं मुझे आपके कमेंट का इंतजार रहेगा|नमस्कार|

सोमवार, 15 अप्रैल 2024

कविता, राम का आधुनिक वनवास भाग ४

 भाग ४

२२ जनवरी सन २०२४ का वह पावन दिन

सुखद मंगलकारी और मन भावन दिन

जब देखा पुरे विश्व ने राम को नव मंदिर में

हर्षित हो गई मनगंगा ऐसा अतिपावन दिन


अंत हो गयी अंतहिन प्रतीक्षा 

युगों युगों तक होगी समीक्षा

राम अवध के अवध राम की

पुर्ण हो गई मन की सब इच्छा

कविता, राम का आधुनिक वनवास भाग ३

 भाग ३

जब कलयुग ने विस्तार किया

असत्य का सत्कार किया

नष्ट होने लगी जब मर्यादा

राम का तिरस्कार किया


विश्वास को अविश्वास दिया

समृद्धि को उपहास दिया

कामी कपटी लोभी मोही सत्ताओं ने

फिर राम को वनवास दिया


अब का वनवास पांच सौ वर्षो था 

अंधकार का ये कालखंड संघर्षो का था 

बस एक नाम था भारत के पास राम 

पुनः गृह आगमन का प्रतीक्षा काल वर्षों का था

कविता, राम का आधुनिक वनवास भाग २

 भाग २


तब कर्म ने अधिकार लिया

पृथ्वी पर उपकार किया

मर्यादा की स्थापना के लिए

प्रभु ने राम रुप अवतार लिया


जब पुरुषोत्तम ने पुरुषार्थ दिखाया

आतंक को यथार्थ दिखाया

पाप और अत्याचार का दमन कर

विश्व को सत्यार्थ दिखाया 


मर्यादा पुरुषोत्तम को जान लिया

जग ने सत्य को मान लिया

फिर राम राज्य नही होगा

पृथ्वी ने भी पहचान लिया

कविता , राम का आधुनिक वनवास भाग १

 भाग १

एक वनवास तब मिला था

जब लंका में पाप बढ़ा था

धर्म की हानी हो रही थी

चारों दिशाओं में त्राहिमाम मचा था


नारी का सम्मान नही था

मर्यादा का मान नही था

मानवता का ज्ञान नही था

कोई संविधान नही था


नीति नही थी न्याय की

वह प्रतिष्ठा नही थी गाय की

सत्य का आभाव था

रीति चल रही थी अन्याय की

रविवार, 21 जनवरी 2024

गीत , राम आए हैं भाई रे

एक नयी गीत आपके साथ साझा कर रहा हूं आपके प्यार की उम्मीद है 

राम आए हैं भाई रे 


जन्मभूमि में भवन बना है

भारत पर से कष्ट हटा है

सूर्यवंश का सूर्य उगा है

मैं कहता हूं सच्चाई रे

राम आए हैं भाई रे 

राम आए हैं माई रे


बरस पांच सौ वनवास रहे हैं

सारे भक्त उदास रहे हैं

करोड़ो मन निराशा रहे हैं

आज मंगल घड़ियां आई हैं

मैं गाता गीत बधाई रे

राम आए हैं भाई रे

राम आए हैं माई रे


ढोल नगाड़े बाजेंगे

अवध में राम बिराजेंगे

सब हर्षित होकर नाचेंगे

राम राज्य फिर आएगा 

भगवान करेंगे भलाई रे

राम आए हैं भाई रे

राम आए हैं माई रे

मेरी ये रचना आपको कैसी लगी मुझे जरूर बताएं नमस्कार 

शनिवार, 20 जनवरी 2024

कविता , राम तुम्हारे नहीं हैं

एक नयी कविता आपके साथ साझा करना चाहता हूं आशा है आपको अच्छी लगेगी 

 राम तुम्हारे नहीं हैं


तुम तो कहते थे काल्पनिक हैं

अयोध्या जन्मस्थली ही नहीं

रावण कोई था ही नहीं

लंका कभी जाली ही नहीं


तुम्हें विश्वास नहीं है इस नाम पर 

तुम्हें आस्था नहीं है राम पर 

राम गर तुम्हारे मन मंदिर में पधारे नहीं हैं 

तो फिर राम तुम्हारे नहीं हैं


तुमने प्रश्न उठाए थे राम के सेतू पर

तुम्हें अनास्था है राम के हेतु पर

अब कह रहे हो राम सब के हैं

अब तक तो वक्त बेवक्त कहते थे

राम भक्तों को अंधभक्त कहते थे


राम गुणों के सागर हैं , अति उत्तम हैं 

सर्वोत्तम हैं , पुरुषोत्तम हैं 

गर तुमने आदर्श राम के जीवन में उतारे नहीं हैं 

तो फिर राम तुम्हारे नहीं हैं 


कविता कैसी लगी मुझे अपने विचार व्यक्त जरुर बताइएगा , नमस्कार 

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

कविता, तुम कहते हो राम काल्पनिक

 एक नयी कविता आपके साथ साझा कर रहा हूं 

तुम कहते हो राम काल्पनिक है


तुम कहते हो राम काल्पनिक है

धाम अयोध्या का विस्तार काल्पनिक है

रामसेतु का प्रमाण काल्पनिक है

मां शबरी का सत्कार काल्पनिक है

देवी अहिल्या का उद्धार काल्पनिक है


तुम कहते हो राम काल्पनिक है


पिता के वचनों का रखना मान काल्पनिक है

गुरु के उपदेशों का निरंतर ध्यान काल्पनिक है

संकट में भी पत्नी का निज पति पर अभिमान काल्पनिक है

भाईयों के मध्य वो प्रेम वो सम्मान काल्पनिक है


तुम कहते हो राम काल्पनिक है


हां काल्पनिक है तुम्हारा ये बयान

हां काल्पनिक है तुम्हारा ये विकृत ज्ञान 

हां काल्पनिक है तुम्हारा ये पश्चिमी विधान


और तुम कहते हो राम काल्पनिक है


कविता कैसी लगी मुझे अपने विचार जरुर बताइएगा 



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