गुरुवार, 9 अगस्त 2018

ग़ज़ल, सुबह को आने दो

नमस्कार , 2 फरवरी 2017 की सुबह उगते सूरज को देखकर मैने एक गजल लिखी थी | आज फुर्सत के कुछ पल हासिल होने पर अपनी सभी पुरानी रचनाओं को आपके साथ साझा कर रहा हूं जिन्हें मैने बीते दो सालों के मध्य में लिखा है | गजल का आनंद उठाईये

ग़ज़ल, सुबह को आने दो

अंधेरों को डराऊंगा मैं , सुबह को आने दो
ये चिराग बुझाऊंगा मैं , सुबह को आने दो

तुम्हारी तस्वीर धुंधली सी नजर आ रही है अभी
जी भर कर देखूंगा तुम्हें , सुबह को आने दो

कल रात जुगनूओं से रास्ता पूछा तो बड़ा इतरा रहे थे ये
मैं सही रास्ता दिखाऊंगा इन्हें , सुबह को आने दो

रात में चंद खोखली दीवाने बना कर कहते हैं कि हमने महल बना दिया
दरारें कहां-कहां हैं सबको बताऊंगा मै , सुबह को आने दो

रात को ईमानों कि सौदायगी होती है
सियासत का हाल सुनाऊंगा तुम्हें , सुबह को आने दो

मेरे मन का आशियाना बड़ा सुनसान और अंधेरों भरा है
खुद से मिलाऊंगा तुम्हें , सुबह को आने दो

मैं ' तनहा ' बैठा रहा चांदनी को घेर रखा था इन्होंने
तारों की शिकायत करूंगा मैं , सुबह को आने दो

     मेरी गजल के रूप में एक और छोटी सी यह कोशिस आपको कैसी लगी है मुझे अपने कमेंट के जरिए जरुर बताइएगा | अगर अपनी रचना को प्रदर्शित करने में मुझसे शब्दों में कोई त्रुटि हो गई हो तो तहे दिल से माफी चाहूंगा |  एक नई रचना के साथ मैं जल्द ही आपसे रूबरू होऊंगा | तब तक के लिए अपना ख्याल रखें  अपने चाहने वालों का ख्याल रखें | मेरी इस रचना को पढ़ने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया | नमस्कार |

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