नमस्कार, कागज पर आडि तिरछी लकीर के समान कुछ पांच छह महीने में जो थोड़े बहोत मुक्तक लिख पाया हूं उन्हें आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं
लोकतंत्र के गाल पर एक और थप्पड अच्छा नही होगा
मां भारती के रखवालो पर अब एक और पत्थर अच्छा नही होगा
हिन्दुस्तान के बाहर भीतर के दुश्मनों गद्दारो कान लगाकर तुम ये सुनलो
भारतीय फौज के सब्र का बांध टूटेगा तो अच्छा नहीं होगा
एक तो सीट हरा के आया है
दुसरा पैसा गवा के आया है
आईना देख लेता चुनाव लड़ने से पहले
अपनी जमानत तक बचा न पाया है
तो फिर जंगे मैदान में आते क्यों हो
अमन की बात करते हो तो फिदायीन हमले करवाते क्यों हो
तुम तो कहते हो के भारतीय वायुसेना ने कुछ दरख़्त मार गिराए हैं बस
तो फिर टूटे दरख्तों का इंतकाम लेने भारतीय सीमा में आते क्यों हो
खुद अपनी शख्सियत मिटाने में डर लगता है
फिर से दिल लगाने में डर लगता है
बड़ी जतन से एक बार जला पाया हूं
अब ये चिराग बुझाने में डर लगता है
यहां हर एक का इमान आजमाकर बैठा हूं
इसलिए बाजार में अपनी कीमत लगाकर बैठा हूं
बो चाहता था के मोहब्बत के बहाने से मेरा सब कुछ लूट ले जाए
इसलिए मै खुद ही सब कुछ गवाकर बैठा हूं
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इन मुक्तक को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |
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