बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

कविता, लोग ठंडी पड़ी चाय समझने लगे हैं मुझे

      नमस्कार , उम्र बढने के साथ साथ इंसान की जिम्मेदारीयां तो बढ जाती हैं मगर मन में जो बच्चा है वह बड़ा नही हो पाता मेरे ख्याल से जिसे शौक कहा जाता है | आधी गूजरी उमर और शौक के बीच कि यही रस्साकशी मेरी कविता का प्रधान भाव है | गुज़ारिश बस ये है कि अगर आप को कविता पसंद आये तो आप मेरे ब्लॉग को फॉलों जरूर करें और अपना प्यार और आशीर्वाद मुझे यू ही दतें रहें | अब आप हैं और कविता है -

लोग ठंडी पड़ी चाय समझने लगे हैं मुझे

लोग ठंडी पड़ी चाय समझने लगे हैं मुझे
अभी मेरी उम्र ही क्या है मेरी
मात्र पैंतालीस बरस
हां माना चेहरे पर थोड़ी बहुत झुर्रियां है
मगर मैं कोई साठ बरस की थोड़ी हुई हूं
मुझसे अभी और भी कई औरतें बुड्ढीयां हैं
मगर उन्हें तो अभी जवान गाय समझते हैं लोग

मुझे अब भी याद है वह मेरी माईके की गली
वह आम का पेड़
उसी पेड़ की डाली पर तो हम झूला डालते थे
और खूब झूलते थे
मैं और मेरी बचपन की सहेली तितली
मुझे अब भी अच्छा लगता है झूला झूलना
जब कभी गार्डन में जाती हूं
तो जी करता है कि झूला झूललुं
अगर मेरे बच्चे कहते हैं
झूला तो बच्चे और बुड्ढे झूलते हैं

बचपन में मुझे खिलौने बहुत अच्छे लगते थे
तब मेरे पास पूरे एक दर्जन खिलौने थे
हाथी , लंबी पूछ वाला कुत्ता ,  घोड़ा , जोकर     और भी न जाने क्या-क्या
अब भी कहीं किसी खिलौने की दुकान को
देखती हूं तो जी करता है कि
एक खिलौना खरीद लूं अपने लिए
मगर फिर यही ख्याल आता है की
खिलौने तो बच्चे खेलते हैं
और मैं तो अधेड़ उम्र की हूं
तभी तो़
लोग ठंडी पड़ी चाय समझने लगे हैं मुझे

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