रविवार, 9 दिसंबर 2018

कविता, आगे इंसानों की बस्ती है

    नमस्कार , महानगरों में हमारे शहरों में जिस तरह से मानवता, आपसी सहयोग एवं भाईचारे का हास हो रहा है उसे देखते हुए तकिबन तिन बरस पहले लिखी मेरी एक कविता याद आती है { आज अचानक ये कविता आपको सुनाने की वजह अखबार में छपी एक खबर है जिसमें बताया गया है के एक सड़क दुर्घटना होने के बाद वहा पर उपस्थित लोगों ने घायलों की मदद करने की जगह उनका विडियो बनाना मुनासिब समझा |

आगे इंसानो की बस्ती है

यहां यहां तो लोग किसी की लाचारी का तमाशा देखते हैं
सब सुनते हे मगर फिर भी खामोश रहते हैं
किसी की चीख सुनकर भी इनके दिल नहीं  पसीजते
दर्द देने सहने की आदत है इन्हें
जहां हर रोज एक  मासूम दर्द से चीखती है
                    यह मुर्दों का शहर है
                    आगे इंसानों की बस्ती है

कोई किसी का नहीं है यहां सब स्वार्थ में अंधे हैं
किसी का काला दिल है तो किसी के काले धंधे हैं
रिश्तो को सब भूल गए हैं भूल गए सब भाई चारा
कौन सा खुदा इन्हें बताएगा
प्रेम हे धर्म तुम्हारा
मत मिटाओ इंसानियत को
मगर हर गली-मोहल्लों मे जिंदगी यहां तड़पती है
                     यह मुर्दों का शहर है
                     आगे इंसानों की बस्ती है

क्या हुआ अगर  तुमने लोगों को हंसता देख लिया
किसी मंदिर में कोई जलता दिया देख लिया
इसका मतलब यह नहीं  यहां खुशियां  मुस्कुराती हैं
यह तो एक छलावा है
असल में यह नफरत की आग धधकती है
                       यह तो मुर्दों का शहर है
                       आगे इंसानों की बस्ती है

    मेरी कविता के रूप में एक और छोटी सी यह कोशिस आपको कैसी लगी है मुझे अपने कमेंट के जरिए जरुर बताइएगा | अगर अपनी रचना को प्रदर्शित करने में मुझसे शब्दों में कोई त्रुटि हो गई हो तो तहे दिल से माफी चाहूंगा | एक नई रचना के साथ मैं जल्द ही आपसे रूबरू होऊंगा | तब तक के लिए अपना ख्याल रखें , अपने चाहने वालों का ख्याल रखें | मेरी इस रचना को पढ़ने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया | नमस्कार |

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