नमस्कार , यहा मै अपनी आज ही के दिन कही गई मेरी नयी गजल आपकी जानीब में रख रहा हुं मेरी दिली तमन्ना है कि मेरी ये नयी गजल आपको बेहद पसंद आएगी
चेहरा जाना पहचाना लगता है
वही शख्स पुराना लगता है
कोई लकल्लुफ नही रहा गुफ्तगू मे
ताल्लुकात बहुत पुराना लगता है
हमकलाम हुए है हम कई दफा सुरज से
हमारा महताब पर आना जाना लगता है
वही चेहरा दिखाता है हरके शख्स मे
ये आईना शायद पुराना लगता है
आग लगाने मे चार पल भी नही लगते
एक घर बनाने मे जमाना लगता है
मेरे शहर मे लोग बारुद कि खेती करते है
तुम्हारे गांव का मौसम सुहाना लगता है
आस्मा है चादर और बिस्तर है जमी मेरी
ये चांद तो मेरे सिर का सिरहाना लगता है
हर फूल पर डालता रहता है डोरे
भवंरे का मिजाज आशिकाना लगता है
तुम कहते हो ये सियासत खाना है
मुझे ये चोर अचक्को का ठीकाना लगता है
तुम्हे क्या लगता है कौन रहता है यहां
दिल मेरा हक उसका मालिकाना लगता है
इलाज नही मौत मिलती है यहां से
बाहर से देखकर ये दवा खाना लगता है
तनहा कई और दिल के बिमार बैठे है
यकिनन यही वो शराबखाना लगता है
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इस गजल को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 12 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयकीनन बहुत ही उम्दा गजल कही है आपने।
जवाब देंहटाएं"चांद तो मेरे सिर का सिरहाना लगता है।"
वाह वाह।
नई पोस्ट पर स्वागत है आपका 👉🏼 ख़ुदा से आगे
वाह..शानदार गज़ल..क्या कहने
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