बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

तीन कविताएं

 बड़ी ख़ामोशी से 


हर दिन एक 

अंजान सी 

ख़ामोशी 

मेरा पिछा करती है 

कहती है 

बोलो 

वो जो कोई नहीं बोलता 

और मैं ख़ामोशी को 

बड़ी ख़ामोशी से 

जबाब देता हूं


दिन छोटे होने लगे हैं 


अब दिन छोटे होने लगे हैं 

शायद सूरज भी 

अपनी रोशनी 

बचा रहा 

उन लोगों से 

जो अब 

सड़कें, पुल, कोयला, तालाब 

और भी न जाने क्या-क्या 

चुराने लगे हैं


यहां रिवाज़ है 


यहां रिवाज़ है 

शायद आपको भी 

अब भी 

अब तक भी 

पता ना हो 

पर 

झूठ बोलना 

परंपरागत 

दायित्व है 

यही तो 

विरासत मे मिला है 

मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं

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