गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

ग़ज़ल , अपना कहने का अधिकार हार गई

      नमस्कार , आज सुबह मैने ये ग़ज़ल लिखी है जिसे मैं आपके साथ साझा कर रहा हूं | ग़ज़ल कैसी रही मुझे जरूर बताइएगा | एक जरा सा सलाह है आपके लिए यदि आप वर्तमान खबरों से अवगत होंगे तो आपको इस ग़ज़ल को पढ़ने का पुरा आनंद आएगा |


अपना कहने का अधिकार हार गई 

आज से वो मेरा ऐतबार हार गई 


जिनके सीने की नाप है 56 इंच 

हैरत है कि उनकी सरकार हार गई 


सब ने कहा ये जीता है वो जीता है 

मेरी नजर में खेतों की बहार हार गई 


जश्न की रौनक उस चूल्हें पर कहां है 

जिस पर आग भी हुई लाचार हार गई 


अब कौन इतनी हिम्मत दिखाएगा यहां 

मुल्क की आत्मा है बीमार हार गई 


यही तो सियासत है तनहा तुम क्या जानो 

ऐसा तो नहीं है कि पहली बार हार गई 


      मेरी ये ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |


गुरुवार, 18 नवंबर 2021

ग़ज़ल , एक दिन मैं सबको चौका दूंगा

एक दिन मैं सबको चौका दूंगा

उस दिन में जिंदगी को धोखा दूंगा

मेरी मौत पे शायद होंगे सब परिवार के लोग इक्ट्ठा
मैं मरकर ही सही सबको मिलने का एक मौका दूंगा

गर कोई करे जुरअत तुम्हें जबरदस्ती छूने की
तुम मां काली भी हो, मैं मेरी बेटी को ये समझा दूंगा

वो करती है गुमान मुझे छोड़ जाने का 
उसे मैं आसमां से एक परी बुलाकर दिखा दूंगा

अगर रखेगा खयाल वो तुम्हारा ए दोस्त
खुदा क़सम मैं मेरे रकीब को भी दुआ दूंगा

✍🏻Rahul Jerry

October 11 , 2021

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

ग़ज़ल , कलतलक हम भी उनकी तारीफ़ मुंहजबानी करते थे

      नमस्कार , करीब दो से तीन माह पूर्व मैने ये नयी ग़ज़ल लिखी थी जिसे मैं एक किताब में संग्रह के रुप में लाना चाहता था मगर किसी कारण से यह संभव नहीं हो पा रहा है इसलिए मैने सोचा की मै इसे आपके साथ साझा कर दूं | ग़ज़ल कैसी रही मुझे अपने विचारों से अवगत अवश्य कराए |


कलतलक हम भी उनकी तारीफ़ मुंहजबानी करते थे 

जब तक वो दिल में मोहब्बत की बागवानी करते थे 


आज हम जहां के गुलाम शहरी कहे जाने लगे हैं 

एक दौर में हमारे पुरखे यहीं हुक्मरानी करते थे 


हयात की हकीकत को छुपाना क्या बताना क्या 

ज़िन्दगी के शुरुआती मरहले में हम चाय पानी करते थे 


अब के बच्चों में बड़े होनी कि इतनी जल्दी है की रब्बा 

तनह हम इनकी उम्र में थे तो नादानी करते थे 


    मेरी ये ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |


ग़ज़ल , दरिया के साथ कहीं समंदर नही जाता

      नमस्कार , करीब दो से तीन माह पूर्व मैने ये नयी ग़ज़ल लिखी थी जिसे मैं एक किताब में संग्रह के रुप में लाना चाहता था मगर किसी कारण से यह संभव नहीं हो पा रहा है इसलिए मैने सोचा की मै इसे आपके साथ साझा कर दूं | ग़ज़ल कैसी रही मुझे अपने विचारों से अवगत अवश्य कराए |


दरिया के साथ कहीं  समंदर  नही  जाता 

आंखों के साथ चलकर मंजर नही  जाता 


हर इंसान में होता है मगर कम या ज्यादा 

तमाम कोशिशों के बाद भी बंदर नही जाता 


ख्वाबों ने बना दिया है दिवालिया मुझको 

हर इंसान में रहता है सिकन्दर नही जाता 


तमाम लोग बोलते हैं झूठ किस मक्कारी से 

इसका सच मेरे हलक के अंदर नही जाता 


आखिरत का खौफ़ नही है तनहा मुझको 

रुह जाती है आसमान तक पंजर नही जाता 


    मेरी ये ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्क्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |


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