नमस्कार , करीब दो से तीन माह पूर्व मैने ये नयी ग़ज़ल लिखी थी जिसे मैं एक किताब में संग्रह के रुप में लाना चाहता था मगर किसी कारण से यह संभव नहीं हो पा रहा है इसलिए मैने सोचा की मै इसे आपके साथ साझा कर दूं | ग़ज़ल कैसी रही मुझे अपने विचारों से अवगत अवश्य कराए |
कलतलक हम भी उनकी तारीफ़ मुंहजबानी करते थे
जब तक वो दिल में मोहब्बत की बागवानी करते थे
आज हम जहां के गुलाम शहरी कहे जाने लगे हैं
एक दौर में हमारे पुरखे यहीं हुक्मरानी करते थे
हयात की हकीकत को छुपाना क्या बताना क्या
ज़िन्दगी के शुरुआती मरहले में हम चाय पानी करते थे
अब के बच्चों में बड़े होनी कि इतनी जल्दी है की रब्बा
तनह हम इनकी उम्र में थे तो नादानी करते थे
मेरी ये ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |
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