नमस्कार , करीब दो से तीन माह पूर्व मैने ये नयी ग़ज़ल लिखी थी जिसे मैं एक किताब में संग्रह के रुप में लाना चाहता था मगर किसी कारण से यह संभव नहीं हो पा रहा है इसलिए मैने सोचा की मै इसे आपके साथ साझा कर दूं | ग़ज़ल कैसी रही मुझे अपने विचारों से अवगत अवश्य कराए |
दरिया के साथ कहीं समंदर नही जाता
आंखों के साथ चलकर मंजर नही जाता
हर इंसान में होता है मगर कम या ज्यादा
तमाम कोशिशों के बाद भी बंदर नही जाता
ख्वाबों ने बना दिया है दिवालिया मुझको
हर इंसान में रहता है सिकन्दर नही जाता
तमाम लोग बोलते हैं झूठ किस मक्कारी से
इसका सच मेरे हलक के अंदर नही जाता
आखिरत का खौफ़ नही है तनहा मुझको
रुह जाती है आसमान तक पंजर नही जाता
मेरी ये ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्क्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |
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