नमस्कार , लगभग महीने भर पहले मैने ये कविता लिखी थी जिसे मैं किसी व्यस्तत्ता के कारण आपसे साझा नही कर पाया था आज कर रहा हूं मुझे यकीन है कि आपको यह कविता पसंद आएगी
रोज ढलता है सूरज और मेरी एक प्याली चाय
विश्वास ही नहीं होता मुझको
आप को भी नही होता ना
किसी को भी नहीं होता होगा
आखिर किसी को हो भी कैसे सकता है
कि कोई सूरज नाम का चीज है
जो रोज सुबह जन्म ले लेता है
और कुछ घंटे जीवित रहता है
फिर मृत्यु को हो जाता है
और फिर अगली सुबह जीवन पाता है
यानी ना तो ये पुर्णत: अमर है
और ना ही नश्वर
इसे किसने इस काल चक्र में फंसाया है
किसी मनुष्य ने यक्ष ने गंधर्व ने या के ईश्वर
मेरी ये कविता आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |
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