बुधवार, 7 अगस्त 2019

कविता, वो कड़ी धूप में चलने वाली थी

    नमस्कार , हमारे भारत की एक ओजस्वी राजनेता और एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी श्रीमती सुषमा स्वराज जी का निधन भारतीय राजनीति की एक ऐसी हानि है जिसका पुर्ण होना संभव नही है | दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री को एक सांसद और पूर्व विदेश मंत्री के तौर पर उनके भाषणों और इंटरव्यूस के माध्यम से मैने अब तक उन्हें जितना जान पाया है वह मुझे हमेशा प्रेरित करता रहा है |

     उनके व्यक्तित्व से प्रेरित प्रभावित एवं मार्गदर्शीत होकर आज मेरे मन में अनायास ही एक कविता उपजी है जो मै यहां श्रद्धांजलि स्वल्प यहां लिख रहा हूँ |

वो कड़ी धूप में चलने वाली थी

वो कड़ी धूप में चलने वाली थी
वो विपत्ती के हालात बदलने वाली थी
आंगन के सारे दीपक उसके दोस्त थे
और अंधेरे उसके दुश्मन थे
वो अंधेरों सेे डटकर लड़ने वाली थी
वो कड़ी धूप में चलने वाली थी

वो कहती थी हम ये सत्य की जंग जीतेंगे
एक न एक दिन ये दुख के दिन बीतेंगे
वो जन नायिका वो मन नायिका
वो राष्ट की सच्ची सेविका
वो राष्ट्रहित मे जीने मरने वाली थी
वो कड़ी धूप में चलने वाली थी

वो अटल निश्चय करने वाली थी
वो निडर मुखर वक्तव्य बोलने वाली थी
सभी जिम्मेदारीयों को स्वीकारा
वो सूरज की तरह चमकती रहने वाली थी
वो कड़ी धूप में चलने वाली थी

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      इन कविता को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |

नज्म, ये सावन अच्छा नही लग रहा है मुझे

    नमस्कार, सावन के इस महीने में टप टप गिरती हुई बरसात की बूंदों को देखते हुए अपने घर या किसी चाय की टपरी के नीचे बैठकर चाय पीने या भुट्टे खाने का आनंद ही मन को गुदगुदा देने वाला है | इसी तरह के एक दिन में मरे मन में एक नज्म ने जन्म लिया उसका कुछ टूटा फूटा हिस्सा आपसे साझा कर रहा हूँ

एक बात बताऊं तुम्हें
ये सावन अच्छा नही लग रहा है मुझे

पिछले साल का सावन कितना खुसूसि था
जब हम दोनों एक शहर में थे
भले हम कभी एक साथ नही रहे
मगर हम आस पास तो थे
मगर अब नजाने कहां हो तुम
और इस जाने पहचाने अपने शहर में हूं मैं
पर फिर भी
ये सावन अच्छा नही लग रहा है मुझे

जाने क्यों एहसास आहत हुए हैं
ये बरसात की ठंडक अब राहत नहीं देती मुझे
एक तनहा सी खामोशी है
दिल और जहन के दरमिया
सब कुछ है कोई कमी नही
मगर फिर भी
ये सावन अच्छा नही लग रहा है मुझे

शायद तुम्हें ये एहसास न सताते हो
या शायद तुम्हें भी

पर
ये सावन अच्छा नही लग रहा है मुझे

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सोमवार, 22 जुलाई 2019

शेरो शायरी, कुछ रुह की सुना दूं 7

       नमस्कार, हाल के बीते कुछ दो तीन महीने में मैने कुछ शेरो शायरी की है कि क्या है यू कहूं तो करने की कोशिश की है और जो कुछ टूटा फूटा हो पाया है वो आज आपके हवाले कर रहा हूं

जहर के कारोबार का यही अंजाम होगा
बदनाम तो वो होगा ना जिसका कोई नाम होगा

बतन के दुश्मनों से जो दोस्ताना कारोबार करता है
उसका होगा भी तो कितना कौडी दो कौडी का इमान होगा

अपने बेटों की लाशों को भी देखकर जिसकी आंखें नम न हो
आपको लगता है कि की वो शख्स इंसान होगा

कभी शाख से टुटते पत्ते देखें हैं तुमने
मतलब तुमने हमे कभी गौर से नही देखा

पतलों को ये गुमान हैं के कभी मोटे नही होंगे
मोटों को ये गलतफहमी है के कभी पतले नही होंगे

आँसूओं की यही खासियत होती है
आने और जाने का कोई निशान नहीं छोड़ते

एक नाम के दो लफ्ज जब से नारे हो गए हैं
आपसी दोस्त दुश्मन सारे हमारे हो गए हैं

ये हमारी मेहनत और आवाम की मोहब्बतों का नतीजा है
मुखालफिन भी अब मुरीद हमारे हो गए हैं

ये नजारा पहले देखिए खुदा जाने फिर कब मयस्सर हो
कितने खुबसुरत लोग महफिल में तमाशा देखने आए हैं

कितना समझदार समझता था तुझसे पहली दफा मिलने से मै खुद को
आखिर तेरे मासुम से चेहरे ने बेवकूफ बना ही दिया मुझको 

जंगवाजों जंगवाजी यू भी दिखाई जाती है
हार हो या जीत हो दुश्मन शर्मिंदा रहना चाहिए

कुछ लोग अपने नाम कुछ लोग अपने काम से पहचाने जाते हैं
दुनिया मिसाल देती है जिनकी कुछ लोग अपने अंजाम से पहचाने जाते हैं

शहद समझकर आतंकवाद के जहर को पालने वालों
जहर पहले उस प्याले को जलाता है जिसमें वो रखा जाता है

लफ्जों में लगी हुई बीमारी नही हो सकता
तनहा बागी हो सकता है दरबारी नही हो सकता

हमारे सारे बनते हुए काम गड़बड़ा जाते हैं
जब भी सुनते हैं तुम्हारा नाम सकपका जाते हैं

किसी दिन दिल हिचकिचाना बंद करें तो बताएं तुम्हें
हम तुमसे बात करते हुए हड़बड़ा जाते हैं

होश आने पर मदहोशी का खामियाजा न भुगतना पड़ जाए कहीं
संभालो खुद को जवानी की दहलीज़ पर अक्सर पाँव लड़खड़ा जाते हैं

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रविवार, 21 जुलाई 2019

मुक्तक, चार चार लाइनों में बातें करूंगा आपसे 8

नमस्कार, बीते एक दो महीनो के दरमिया में मैने कुछ मुक्तक लिखे हैं जिन्हें आज मै आपके दयार में रख रहा हूं अब यहां से आपकी जिम्मेदारी है कि आप मेरे इन मुक्तकों के साथ न्याय करें

वो जमीन दरगाह हो जाती है जहां किसी नवाजी का सर लगता है
वो धरा किसी तीर्थ से कम नही जहां प्रसाद वितरण का लंगर लगता है
न मंदिर तोड़ो न मसजिद तोड़ो न चर्च न गुरुद्वारा
अब मुझे जलता हुआ हिन्दुस्तान देखकर डर लगता है

जमुरियत को लगा है आजार कहेंगे
आस्तीन के सांपों को मक्कार कहेंगे
हमारी हिम्मतअबजाई करो जमुरियत वालों
हम मुल्क के गद्दारों को गद्दार कहेंगे

हीज्र कि रात गुजरती है सहर छोड़ जाती है
नदी कि बाढ उतरती है लहर छोड़ जाती है
मेरा जिस्म जिस कदर आग का दरिया बना है
बुखार उतर भी जाए तो असर छोड़ जाती है

नही चाहिए था मोहब्बत का इस कदर नुमायाँ होना
अपने ही जिस्म है और किसी और का साया होना
मोहब्बत चुनने की आजादी सब को होनी चाहिए ये हक है
मगर अच्छा नही है बेटियों का इस कदर पराया होना

हेराफेरी का हिसाब जायज़ नही है
बेअदबी से दिया जबाब जायज़ नही है
इंसाफ करने के लिए अदालते हैं , मुंसिफ हैं
यू भीड़ का इंसाफ जायज़ नही है

खुदा जिन्दा रहे ना रहे भगवान जिन्दा रहे ना रहे इंसान जिन्दा रहना चाहिए
सरकार कोई भी आए निजाम कोई हो हालात कैसे भी हो दिल में हिन्दुस्तान जिन्दा रहना चाहिए
जंगवाजों जंगवाजी यू भी दिखाई जाती है
हार हो या जीत हो दुश्मन शर्मिंदा रहना चाहिए

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