नमस्कार , करीब तीन चार दिन पहले मै ने ये ग़ज़ल लिखी है जिसे मैं आपके साथ साझा कर रहा हूं
इस तरह वो मुझको पराया करती है
मिलन का वक्त बातों में जाया करती है
समंदर तो जानता है सीमाएं अपनी
बाढ तो नदीयों में आया करती है
जिंदगी खुद को मेरी सास समझने लगी है
रोज चार बातें सुनाया करती है
उसके और उसके रिश्ते में अब क्या बाकी है
वो उसे भइया कहके बुलाया करती है
प्रेम , प्यार , लव , इश्क़ , मुहब्बत और बाकी सब
नही यार वो मुझे गणित समझाया करती है
बर्फ़बारी की तरह जब आती हैं आफतें हयात में
तनहा लोगों को मांओं की दुआएं बचाया करती है
मेरी ये ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |
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