मंगलवार, 1 सितंबर 2020

ग़ज़ल , बहोत दिन ठहर के आरहे हो क्या

     नमस्कार , आज मैं आपसे मेरी करीब डेढ़ साल पहले लिखी छ ग़ज़ले साझा करने जा रहा हुं मुझे आशा है कि आपको मेरी यह ग़ज़लें पसंद आएंगी इनमे से पांचवी ग़ज़ल यू देखें के

बहोत दिन ठहर के आरहे हो क्या

अपने गांव घर से आरहे हो क्या


बहोत तिजारती लहजे में गुफ्तगुं कर रहे हो

किसी शहर से आरहे हो क्या


तुम्हारा अंदाज भी उसके जैसा है

तुम भी उधर से आरहे हो क्या


लुटे हूए सुल्तान जैसी हालत लग रही है तुम्हारी

क्या , दफ्तर से आरहे हो क्या


लगता है सफर लंबा भी है जरुरी भी है तनहा भी है

कब से , दोपहर से आरहे हो क्या

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ग़ज़ल , ये बेफिजुल का सुनना सुनाना नही होगा

       नमस्कार , आज मैं आपसे मेरी करीब डेढ़ साल पहले लिखी छ ग़ज़ले साझा करने जा रहा हुं मुझे आशा है कि आपको मेरी यह ग़ज़लें पसंद आएंगी इनमे से चौथी ग़ज़ल यू देखें के

ये बेफिजुल का सुनना सुनाना नही होगा

तय हुआ है अब रोज का मिलना मिलाना नही होगा


दूर रहने से क्या जान पहचान बदल जाएगी

होगा तो ये होगा के आना जाना नही होगा


दरिया खुद ही समंदर तलाश लेतीं हैं

मोहब्बत में अब किसी से पुछना पुछाना नही होगा


आ एक दिन तसल्ली से बैढकर गुफ्तगुं कर लेते हैं

मुझसे ये रोज का वाट्सअप पर मैसेज पढ़ना पढ़ाना नही होगा


जिस बला कि खुबसुरत लगना हो एक बार में ही लग जा

तेरी खुबसुरती में तनहा यू बार बार ग़ज़लें लिखना लिखाना नही होगा

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ग़ज़ल , अरे ओ रोज एक नया बहाना बनाने वाले

      नमस्कार , आज मैं आपसे मेरी करीब डेढ़ साल पहले लिखी छ ग़ज़ले साझा करने जा रहा हुं मुझे आशा है कि आपको मेरी यह ग़ज़लें पसंद आएंगी इनमे से तिसरी ग़ज़ल यू देखें के

अरे ओ रोज एक नया बहाना बनाने वाले

ऐसे वादे ही मत किया कर निभाने वाले


पहले मुझे तेरे बारे में खुशफहमी थी

ये तो अब खुला है तू भी सारे अंदाज है जमाने वाले


तुझे शिकायत है के मैने याद नही रखा तुझको

तो ऐसे काम ही क्यों करता है भुलाने वाले


मुझे तो तुझ पर पहले से यकिन था

आने का दिलाशा देकर लौटकर न आने वाले


तेरे बिना भी इस सफर को मुकम्मल करुंगा मै

सफर में तनहा आगे निकल जाने वाले

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ग़ज़ल , अपनी साख बचानी पड़ती है

      नमस्कार , आज मैं आपसे मेरी करीब डेढ़ साल पहले लिखी छ ग़ज़ले साझा करने जा रहा हुं मुझे आशा है कि आपको मेरी यह ग़ज़लें पसंद आएंगी इनमे से दुसरी ग़ज़ल यू देखें के

अपनी साख बचानी पड़ती है

बुझती हूई आग जलानी पड़ती है


नाराजगी का दायरा चाहे जो कुछ भी हो

किसी से उम्रभर की दोस्ती हो जाए तो निभानी पड़ती है


बहुत किमती होने का यही खसारा है

हर किसी को अपनी किमत बतानी पड़ती है


बेवजह ताकत का मुजायरा मुनासिब नही तनहा

पर कभी मुखालफिनों को औकात दिखानी पड़ती है

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