नमस्कार , आज मैं आपसे मेरी करीब डेढ़ साल पहले लिखी छ ग़ज़ले साझा करने जा रहा हुं मुझे आशा है कि आपको मेरी यह ग़ज़लें पसंद आएंगी इनमे से दुसरी ग़ज़ल यू देखें के
अपनी साख बचानी पड़ती है
बुझती हूई आग जलानी पड़ती है
नाराजगी का दायरा चाहे जो कुछ भी हो
किसी से उम्रभर की दोस्ती हो जाए तो निभानी पड़ती है
बहुत किमती होने का यही खसारा है
हर किसी को अपनी किमत बतानी पड़ती है
बेवजह ताकत का मुजायरा मुनासिब नही तनहा
पर कभी मुखालफिनों को औकात दिखानी पड़ती है
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इस ग़ज़ल को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रीया
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