रविवार, 20 सितंबर 2020

ग़ज़ल , बेरोजगार हुं साहब

       नमस्कार , आज ही मैने ये ग़ज़ल लिखी है जिसे मैं आपके सम्मुख रख रहा हुँ आशा करता हुँ की आपको मेरी यह ग़ज़ल प्रसंद आएगी | मैं इमानदार होकर कहुँं तो यह ग़ज़ल मेरे स्वयं के दिल के जज्वात कहती है क्योंकि कम्प्युटर साइंस एण्ड इंजिनियंरिंग से बैचलर ऑफ इंजिनियंरिंग कि डिग्री 2019 में पुरी कर लेने के बाद भी अभी तक मुझे कोई नौकरी या रोजगार नही मिल पाया है तो मैं उन लोगों की मनोदशा बहुत बेहतर करीके से समझ सकता हुँ जो परिवार वाले हैं बहरहाल आप मेरी इस ग़जल का आनंद लिजिए और कैसी रही जरुर बताइएगा |

समाज के नजरों में बेकार हुँ साहब

बाजार में बिकने को तैयार हुँ साहब


नाकारा निकम्मा दुसरे नाम होगए

मैं पढा़ लिखा बेराजगार हुँ साहब


वोट दे देने के बाद कुछ नही मिलेगा

मैं इतना तो समझदार हुँ साहब


शिर्फ मेरे भुखे मरने का सवाल नही

अपने परिवार का आधार हुँ साहब


कौन चाहता है लम्हे गिनकर दिन बिताना

मगर मैं क्या करुं लाचार हुँ साहब


तनहा लहू पसीना बनाकर बहा देंगें

जीतोड़ मेहनत के लिए बेकरार हुँ साहब

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      इस ग़ज़ल को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |

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