बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

तीन कविताएं

 बड़ी ख़ामोशी से 


हर दिन एक 

अंजान सी 

ख़ामोशी 

मेरा पिछा करती है 

कहती है 

बोलो 

वो जो कोई नहीं बोलता 

और मैं ख़ामोशी को 

बड़ी ख़ामोशी से 

जबाब देता हूं


दिन छोटे होने लगे हैं 


अब दिन छोटे होने लगे हैं 

शायद सूरज भी 

अपनी रोशनी 

बचा रहा 

उन लोगों से 

जो अब 

सड़कें, पुल, कोयला, तालाब 

और भी न जाने क्या-क्या 

चुराने लगे हैं


यहां रिवाज़ है 


यहां रिवाज़ है 

शायद आपको भी 

अब भी 

अब तक भी 

पता ना हो 

पर 

झूठ बोलना 

परंपरागत 

दायित्व है 

यही तो 

विरासत मे मिला है 

मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल , इस बुढ़ापे मे बचपना ये नादानी बहुत है



इस बुढ़ापे मे बचपना ये नादानी बहुत है 

गर्व से सुनाने के लिए एक कहानी बहुत है 


मेरे गांव की एक सदानीरा नदी सुख गई 

सुना है पड़ोस वाले शहर के बांध मे पानी बहुत है 


सात जन्मों का वरदान क्यों मांगू मैं भला 

ढंग से जीने के लिए एक ज़वानी बहुत है 


एक ईनामी चोर का लौंडा अब विधायक है 

आप ये तो मानेंगे आदमी खानदानी बहुत है 


बड़े साहब बहुत बड़े सिद्धांतवादी और वफादार हैं 

घूस कि बात मत करो थोड़ा सा चाय पानी बहुत है 


चार पीढ़ियों से यही सोने कि चूड़ियां चल रही हैं 

नई बहू कहती है ये कीमती तो है मगर पुरानी बहुत है


शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

ग़ज़ल, हाकिम रियाया के दिल की बात कब जानता है

मेरी एक नयी ग़ज़ल देखिए 

हाकिम रियाया के दिल की बात कब जानता है 

जब शहरों में बगावत उठती है तब जानता है 


वो अजनबी होता मेरे गमों से तो राहत होती 

मगर यही गम है के वो सब जानता है 


दुसरे को भीगता देखकर बहुत खुश होता था वो 

जब गई है सिर से छत तो अब जानता है 


पिछले महीने तेरे शहर में ज़लज़ला आया था 

उसके कहने का मतलब जानता है 


ये सवाल मेरी शख्सियत पर हावी है 

वो मुझसे क्यों पूछता है जब जानता है 


मेरी तरफ़ से मुहब्बत में कोई कमी नही रही 

ये बात मेरा राम मेरा रब जानता है


यदि ग़ज़ल अच्छी लगे तो अपने विचार मुझसे अवश्य साझा करें, नमस्कार। 

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

कविता, कुंभ निरंतर चलता रहता है

 नमस्कार, मैं अपनी इस नई कविता के विषय मे कोई भुमिका नही बनाना चाहता क्योंकि मैं समझता हूं कि यह कविता किसी भी भुमिका से परे है इसलिए मै सिधे कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं। 

Mahakumbh 2025


कुंभ निरंतर चलता रहता है 


देह रुपी पुण्य धरा पर 

मन, चित्त और आत्मा की त्रिवेणी में 

श्रद्धालु रुपी कई विचार 

निरंतर आते जाते रहते हैं 

भाव सदृश पावन डुबकी 

निरंतर ही लगाते रहते हैं 

जीवन रुपी यह अमर दीया 

ऐसे ही चिरंतन जलता रहता है 

कुंभ निरंतर चलता रहता है


भौतिक जगत का यह महाकुंभ जो आया है 

कई जन्मों के पुण्य कर्मों का 

प्रसाद हमने पाया है 

आस्था है राह मोक्ष की 

गंगाजल तो एक सहारा है 

ब्रह्म सत्य है सत्य ब्रह्म है 

बस तर्क बदलता रहता है 

कुंभ निरंतर चलता रहता है


कविता के विषय मे अपने विचार अवश्य प्रकट करिएगा, नमस्कार। 

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