शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

ग़ज़ल, कही परिंदों को चहकता हुआ देख लिया क्या

    नमस्कार, आज मै आपके सामने मेरी सात गजलों की सीरीज लेकर आया हूं जिन्हें मैने पिछले महीने में लिखा है उन्हीं गजलों में से पहली गजल यू है के

फूल को महकता हुआ देख लिया क्या
कहीं परिंदों को चहकता हुआ देख लिया क्या

तुम क्यों उतावले हुए जा रहे हो पीने पाने के लिए
किसी को नशे में बहकता हुआ देख लिया क्या

क्या कह रहे हो तुमको मोहब्बत हो गई
कोई दुपट्टा सरकता हुआ देख लिया क्या

अपने अपने हिस्से की लकड़ियां ले जाने के लिए आमादा है लोग
उन्होंने वो पेड़ दरकता हुआ देख लिया क्या

प्यासा बैठा है समंदर धुल के साहिल पर काम लिए हुए
तुमने वो दरिया भटकता हुआ देख लिया क्या

दिल में उठा हुआ बवंडर मन मार कर रह जाता है उसने भी महबूबा का चादर सिमटता हुआ देख लिया क्या

फूंक फूंक कर आग बनाने की तैयारी है तनहा
सियासत ने वो शोला दहकता हुआ देख लिया क्या

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सोमवार, 9 सितंबर 2019

कविता, पंख आगए चीटियों को

     नमस्कार , कुछ दो तीन महीने पहले लिखी एक छोटी सी कविता साझा कर रहा हूँ आपके आशीर्वाद की आशा है

पंखा आगए चीटियों को

प्राण मिल गए चीटियों को
पंखा आगए चीटियों को

भूमि की निर्माण बासी
जीव कि विनाश साथी
हर डगर , हर नगर में
मधु स्वाद तलाशती चीटियों को

कहीं जल में डूबकर तो
कहीं पांव के नीचे कुचल कर
प्राण गवाती चीटियों को

पहली बरसा जब है आती
जीवन मृत्यु सा लाती
चार पल के उड़ने का सुख
पंख उग आए चीटियों को

प्राण मिल गए चीटियों को
पंखा आगए चीटियों को

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हास्य व्यंग कविता, दीवारों के कान नही होते

     नमस्कार, आपके लिए प्रस्तुत है मेरी तकरीबन दो महीने पहले लिखी एक हास्य व्यंग कविता जिसका शीर्षक है

दीवारों के कान नहीं होते

सब कहते हैं
दीवारों के भी कान होते हैं
फिर दीवारों के नाम क्यों नहीं होते
दीवारों के मुंह क्यों नहीं होते
आंखें क्यों नहीं होती
हाथ पाऊं क्यों नहीं होते
सिर्फ कान ही क्यों होते हैं
और कहां होते हैं
और किसने देखें हैं दीवारों के कान
मैंने तो कभी नहीं देखा
कहीं भी नहीं देखा
गांव में भी नही देखा
शहर में भी नही देखा
रात में भी नही देखा
दोपहर में भी नही देखा
तो मैं कैसे मान लूं कि
दीवारों के भी कान होते हैं
सबके कहने से

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कविता, लहर के साथ सब बह कर आ गए

    नमस्कार , कुछ दो तीन महीने पहले लिखी एक छोटी सी कविता साझा कर रहा हूँ आपके आशीर्वाद की आशा है

लहर के साथ सब बह कर आगए

लहर के साथ सब बह कर आगए
उखड़े पुखडे पेड़ सारे
साथ होगए नदी के किनारे
छोटे-मोटे पत्थर से लेकर
कूड़ा करकट , टूटी फूटी नाव , पतवारें

लहर के साथ सब बह कर आगए
महापंचायत के दरवाजे तक
बहाकर आया सारा मलवा
अब यहीं पड़ा रहेगा , सड़ता रहेगा
पांच साल पूरा होने तक

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