नमस्कार, मैं अपनी इस नई कविता के विषय मे कोई भुमिका नही बनाना चाहता क्योंकि मैं समझता हूं कि यह कविता किसी भी भुमिका से परे है इसलिए मै सिधे कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं।
कुंभ निरंतर चलता रहता है
देह रुपी पुण्य धरा पर
मन, चित्त और आत्मा की त्रिवेणी में
श्रद्धालु रुपी कई विचार
निरंतर आते जाते रहते हैं
भाव सदृश पावन डुबकी
निरंतर ही लगाते रहते हैं
जीवन रुपी यह अमर दीया
ऐसे ही चिरंतन जलता रहता है
कुंभ निरंतर चलता रहता है
भौतिक जगत का यह महाकुंभ जो आया है
कई जन्मों के पुण्य कर्मों का
प्रसाद हमने पाया है
आस्था है राह मोक्ष की
गंगाजल तो एक सहारा है
ब्रह्म सत्य है सत्य ब्रह्म है
बस तर्क बदलता रहता है
कुंभ निरंतर चलता रहता है
कविता के विषय मे अपने विचार अवश्य प्रकट करिएगा, नमस्कार।