नमस्कार , मैने एक नयी ग़ज़ल लिखी है जिसे मै आपके सम्मुख रख रहा हूँ मेरी ये नयी ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे जरुर बताइएगा |
इंसानों कों पहचानने में कच्ची हैं तेरी आंखें
तीन साल की मासूम बच्ची हैं तेरी आंखें
कोई बनावटी अंदाज नही उतरता इनमें
तुझसे तो सौ गुना अच्छी हैं तेरी आंखें
खुदा की कसम कितनी बडी़ झुठी है तू
कसम से यार कितनी सच्ची हैं तेरी आंखें
तमाम झुठ तमाम सच फिर भी हैं मासूम
तू तो होगई जवान मगर बच्ची हैं तेरी आंखें
मेरी ये ग़ज़ल अगर अपको पसंद आए है तो आप मेरे ब्लॉग को फॉलो करें और अब आप अपनी राय बीना अपना जीमेल या जीप्लप अकाउंट उपयोग किए भी बेनामी के रूप में कमेंट्र कर सकते हैं | आप मेरे ब्लॉग को ईमेल के द्वारा भी फॉलो कर सकते हैं |
इस ग़ज़ल को लिखते वक्त अगर शब्दो में या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए मै बेहद माफी चाहूंगा | मै जल्दी ही एक नई रचना आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा | तब तक अपना ख्याल रखें अपनों का ख्याल रखें , नमस्कार |
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (17-01-2021) को "सीधी करता मार जो, वो होता है वीर" (चर्चा अंक-3949) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--