नमस्कार , मैने एक नयी नज़्म कहने की चाहत की है इस नज़्म के किरदार में वो सारे मर्द मुकम्मल तौर पर सामिल हैं जो इस नज़्म से वाबस्ता ख़्याल रखते हैं | नज़्म देखें के
आप गलत समझ रहीं हैं मुझे
सारे मर्द एक जैसे होते हैं
ये मत कहिए
मेरी गुज़ारिश है
मत कहिए
मैं नही हूं उन मर्दो जैसा
जो ग़ुरूर महसूस करे
किसी महिला को खुद से कमतर बताकर
मैं नही हूं
उन जैसा जो सोचते हैं
किचन सिर्फ औरतों का है
मैं नही हूं
यकीनन मैं नही हूं
मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वो फला खाना नही बना पाती
कि उसे सिर पर पल्लू नही रखना
कि उसे किसी व्रत में यकीन नही है
कि वो बच्चे की जिम्मेदारी नही चाहती
तो क्या हुआ
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता वो कैसी दिखती है
मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता वो वर्जिन है या नहीं
मुझे यकीनन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
मुझे अगर फर्क पड़ता है तो सिर्फ इससे
कि वो इंसान कैसी है
अपने वालिदैन के बारे में क्या ख्याल रखती है
उन्हें कितना अहमियत देती है
अपने ख्वातिन होने पर गर्व करती है या नहीं
अपने हुनर पर यकीन रखती है या नहीं
अपने फैसले खुद करने की सलाहियत रखती है या नहीं
वो आजाद ख्याल है या नहीं
अपनी खुदमुख्तारी को अपना हक समझती है या नहीं
उसे अच्छे इंसानों की समझ है या नहीं
मै उसे दुनियां का डर दिखाकर डराना नही चाहता
मै उसे किसी रिश्ते के बंधन में बांधना नही चाहता
मै उसके अरमानों के परों को काटना नही चाहता
मैं नही हूं उन मर्दों जैसा
यकीनन मैं नही हूं
आप गलत समझ रहीं हैं मुझे
मेरी ये नज़्म आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |
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