नमस्कार , करीब दो से ढाई महीने पहले मैने इस ग़ज़ल को लिखा था और किसी पत्र या पत्रिका में प्रकाशित होने के लिए भेजा था | आज मैने ये निश्चय किया कि इसे अपने इस पटल पर साझा करुं |
वो और लोग हैं जिन्हें जमाने का संकट है
मेरे सामने तो कमाने खाने का संकट है
देने वाले देते होंगे अपनी जान मुहब्बत में
मगर मुझे तो जान बचाने का संकट है
बड़ी-बड़ी बातें बहुत अच्छी हैं मसलन
दुनियां के सामने फलाने का संकट है
नशीली आंखों का जादू उन पर नही होता
जिनके सामने घर चलाने का संकट है
अब आसमान से कोई फरिश्ता नही आएगा
इन लोगों को ये सच समझाने का संकट है
नही भी नहीं कहा उसने हां भी नहीं कहा उसने
यही तो नए-नए दिवाने का संकट है
अब मुहब्बत करना बहुत बड़ी बात नहीं है
सब के सामने निभाने का संकट है
तीन बार ना कहा है तनहा उसने मुझसे
अब मुझे ये रिश्ता बचाने का संकट है
मेरी ये ग़ज़ल आपको कैसी लगी मुझे अपने विचार कमेन्ट करके जरूर बताइएगा | मै जल्द ही फिर आपके समक्ष वापस आउंगा तब तक साहित्यमठ पढ़ते रहिए अपना और अपनों का बहुत ख्याल रखिए , नमस्कार |
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